वैष्णव भक्ति क्यों अधूरी है : Yogesh Mishra

आपरिपक्व वैष्णव लेखकों का मत है कि कलयुग में व्यक्ति की बुद्धि और सामर्थ्य कम हो जाने के कारण व्यक्ति मात्र भक्ति के द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है ! यह दर्शन या विचारधारा पूरी तरह से अपूर्ण है !

शैव जीवन शैली में दो आयामों के मिलन को भक्ति कहा गया है ! इसमें एक आयाम लघु स्वरूप भक्त है तो दूसरा आयाम विराट स्वरूप ईश्वर है ! भक्ति का उद्देश्य लघुता से विराटतम को प्राप्त करना है !

जिसमें लघु अर्थात भक्त ज्ञात पर है और विराट अर्थात ईश्वर अज्ञात है ! भक्ति ज्ञात से अज्ञात को प्राप्त करने की यात्रा है !

वैष्णव जीवन शैली में भक्त के समर्पण को संपूर्ण माना गया है जबकि शैव जीवन शैली में भक्ति के 2 अंश हैं ! एक प्रार्थना और दूसरा प्रयास !

प्रार्थना का तात्पर्य यह है कि भक्त अब अपूर्ण नहीं रहना चाहता ! उसे अपना लघु स्वरूप स्वीकार्य नहीं है ! इसलिए वह विराट की खोज में निकल पड़ा है और प्रकृति की विराटता को देखते हुये वह प्रकृति के निर्माता के विराटतम स्वरूप को पाना चाहता है ! इसलिये वह ईश्वर के स्वरूप को समझ कर उसकी प्रार्थना कर रहा है !

लेकिन इसके साथ ही वह ईश्वर के निर्देश के पालन के लिये भी तैयार है अर्थात प्रकृति के हर आदेश पर वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रयासरत है !

जबकि वैष्णव जीवन शैली में शास्त्र यह कहते हैं कि व्यक्ति को अपने को संपूर्ण रूप से ईश्वर के भरोसे छोड़ देना चाहिए और ईश्वर मिलन की प्रतीक्षा करनी चाहिये !

जबकि शैव जीवन शैली में भक्त के लिये यह निर्देश है कि विराट स्वरूप ईश्वर की आराधना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि भक्त को ईश्वर के विराट स्वरूप में समाहित होने का प्रयास भी करना चाहिये !

क्योंकि जब भक्त विराट में समाहित होगा, तभी वह विराट बन सकता है !

जैसे घड़े का पानी समुद्र में समाहित होकर वह समुद्र बन जाता है ! मात्र घड़े के पानी का समुद्र के प्रति संपूर्ण समर्पण पर्याप्त नहीं है ! घड़े के पानी को घड़े अर्थात संसार के आकर्षण से निकल कर समुद्र अर्थात ईश्वर में समाहित होने का प्रयास भी करना होगा !

बल्कि घड़े के जल को समुद्र के जल में समाहित होने का प्रयास भी करना पड़ेगा ! प्राकृतिक लहरें अर्थात परिस्थितियां तो मात्र उसकी सहयोगी हो सकती हैं !

अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि यदि भक्त मात्र समर्पण के भरोसे बैठा रहेगा, तो वह कभी भी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है ! जब तक कि भक्त में ईश्वर में समाहित होने की प्रबल इच्छा भी न हो !
यही भक्ति का विकसित और पूर्ण स्वरूप है ! जो मात्र शैव जीवन शैली में मिलता है !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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