आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की कला भगवान शिव ने बतलाई थी : Yogesh Mishra

भारत पर लगभग 1200 वर्षों तक आक्रमण करने वाले यूनानी, फ़ारसी, मंगोल, मुग़ल, फ़्रांसिसी, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज आदि अनेक लुटेरे ने भारत से लगभग तीन लाख टन सोना लूट कर ले गये ! अब भी भारत के खजाने में लगभग 558 टन सोना मौजूद है ! वही दूसरी तरफ भारत के घरों और मंदिरों में आज भी लगभग 88,000 टन सोना मौजूद है ! जिस पर विदेशी लुटेरों की नजर आज भी लगी हुयी है !

यदि यह कहा जाए कि आज सम्पूर्ण विश्व की सम्पन्नता भारतीय लुट के सोने पर ही टिकी हुयी है, तो कोई गलत नहीं होगा ! पर यह एक बड़ा रहस्यमय सवाल है कि आदिकाल से मध्यकाल तक जब भारत में सोने का कहीं भी व्यवसायिक खनन नहीं होता था ! तो भारत में इतना सोना आता कहाँ से !

इसका एक मात्र जवाब यह है कि भारत के अन्दर हमारे ऋषियों मुनियों ने अनादि काल से आयुर्वेद में विकसित विज्ञान से कुछ धातुओं को वनस्पतियों के पंचांगों क्रिया द्वारा स्वर्ण में परिवर्तित करने की विद्या विकसित कर ली थी !

इसका प्रमाण ऋग्वेद के उपवेद में मिलता है ! जहाँ आयुर्वेद में कुछ विशेष धातु और वनस्पतियों के संयोजन से सामान्य धातु को ही स्वर्ण में परिवर्तित करने की विधि बतलाई गयी है ! जिसे राक्षस, दैत्य, दानव, असुरों के गुरु शुक्राचार्य तथा तांत्रिक, ज्योतिषी, आयुर्वेदाचार्य रावण ने भगवान शिव से प्राप्त की थी ! जिसका वर्णन तमिल ग्रंथों में मिलता है ! इसी को लूटने के लिए वैष्णव राजा विष्णु आदि देवताओं ने हजारों साल तक करोड़ों राक्षस, दैत्य, दानव, असुर आदि की निर्मम हत्या की !

ऋग्वेदीय उपनिषद के श्री सूक्तों में स्वर्ण बनाने की कला को मंत्र रूप में बहुत गुप्त व सांकेतिक भाषा में बतलाया है ! इस प्रक्रिया के सिधान्त रूप में मात्र 16 मंत्र हैं ! जिससे कुछ विशेष सामान्य धातुओं को विशेष वनस्पति के रसायन के साथ विशेष प्रक्रिया से सम मिश्रण करके सोने का निर्माण किया जा सकता है !

इस स्वर्ण उत्पादन क्रिया में प्रयोग की जाने वाली सामान्य वनस्पति में वह सभी वनस्पतियां आती हैं ! जिन्हें रुद्र अभिषेक पूजन में प्रयोग किया जाता है !
इस प्रक्रिया का प्रयोग लगभग 50 वर्ष पूर्व तक भारत के वैध्य खुले आम किया करते थे ! जिसे देश की आजादी के बाद विभिन्न तरह के कानूनों को बनाकर भारत की यह प्राचीन सर्वमान्य स्वर्ण निर्माण विद्या में प्रयोग तंत्र, ज्योतिष और आयुर्वेद के संयुक्त ज्ञान को अलग अलग करके विलुप्त कर दिया गया है ! लेकिन फिर भी जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है कि हिरण्य्वर्णां, कूटज, हरिणीं, मजीठ, सत्यानाशी के बीज, नीला थोथा, हिरण्यमणीं, गंधक, जातवेदो, पाराम, आवह, ताम्रपात्र आदि का प्रयोग करके एक विशेष प्रक्रिया द्वारा स्वर्ण बनाया जा सकता है !

पर इस प्रक्रिया में विशेष सावधानी यह रखनी पड़ती है कि स्वर्ण बनाने के दौरान हानिकारक गैसें निकलती हैं ! जिससे असाध्य रोग होना संभव है ! अतः इस प्रक्रिया किसी योग्य वैध के दिशा निर्देश में ही अत्यंत सावधानी के साथ की जानी चाहिये ! अन्यथा क्षति हो सकती है !

महान रसायन आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन जो एक दिन में 100 किलो सोना बनाते थे ! इनका जन्म महाकौशल की राजधानी श्रीपुर मे हुआ था ! जिसे वर्तमान मे सिरपुर जिला महासमुन्द छत्तीसगढ कहते हैं ! श्रीपुर प्राचीन काल से ही वैभव की नगरी रही है ! यह दक्षिण कौशल की राजधानी थी ! जो भगवान राम की माता कौशल्या का मायका था ! इसीलिये वहां के शासक सोमवंशी नरेशों ने यहाँ पर भगवान राम का मंदिर और लक्ष्मण के मंदिर का निर्माण करवाया था !

अभी वहां उत्खनन मे राजधानी श्रीपुर के बहुत से साक्ष्य मिले हैं ! महाराष्ट्र के नागलवाडी ग्राम में आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन के प्रयोगशाला होने के प्रमाण आज भी मिलते हैं ! कुछ प्रमाणों के अनुसार वह स्वर्ण आधारित औषधियों के माध्यम से ‘अमरता’ के प्राप्ति की खोज करने में लगे हुये थे ! जिसमें उन्होंने सफलता भी प्राप्त कर ली थी ! किन्तु राज पुत्रों द्वारा ईष्या वश उनकी हत्या कर दी गयी थी जिससे यह विज्ञान जन सामान्य को सुलभ नहीं हो पाया और उनके द्वारा लिखे गये महान ग्रंथों को तक्षशिला और नालंदा जैसे महान विश्वविद्यालयों में आग लगाकर मुगल लुटेरों द्वारा नष्ट कर दिया गया है ! उन्हेंने पारा, तांबा तथा लोहा के निष्कर्षण द्वारा स्वर्ण उत्पादन का ज्ञान विकसित कर लिया था ! वह एक प्रसिद्ध रसायनज्ञ थे ! जिन्होंने दैत्य गुरु शुक्राचार्य के ग्रंथों से एवं गुरु शिष्य परम्परा से स्वर्ण बनाने की विद्या सीख ली थी !

नागार्जुन ने “रस रत्नाकर” नामक ग्रंथ की रचना भी की थी ! जिसमें रस अर्थात पारे के यौगिक क्रियाओं का प्रयोग करके सोने बनाने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है ! इस ग्रन्थ में धातु कर्म और कीमियागिरी के स्तर का वर्णन किया दिया गया है ! इस पुस्तक में चांदी और तांबे जैसे सर्व सुलभ धातु को सोने में बदलने की प्रक्रिया पारा, वनस्पति, अम्ल और खनिज के सहयोग से बतलाई गई है !

इसके आलावा 388 वर्ष के जीवन काल में नागार्जुन ने “सुश्रुत संहिता” के पूरक के रूप में “उत्तर तंत्र” नामक पुस्तक भी लिखी है ! इसके अलावा उन्होंने आरोग्यमंजरी, कक्षपुटी तंत्र, योगसर, जीवसूत्र, रसवैशेषिकसूत्र, योगशतक, कक्षपुट, योगरत्नमाला आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ भी लिखे हैं ! जिसमें अमरता प्राप्त करने के मौलिक सिध्दांतों का वर्णन किया गया है !

चरक संहिता में (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) स्वर्ण तथा उसके भस्म का औषधि के रूप में वर्णन आया है ! कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्वर्ण की खान की पहचान करने के उपाय धातुकर्म, विविध स्थानों से प्राप्त धातु और उसके शोधन के उपाय, स्वर्ण की कसौटी पर परीक्षा तथा स्वर्ण शाला में उसके तीन प्रकार के उपयोगों (क्षेपण, गुण और क्षुद्रक) का वर्णन आया है ! जिस स्वर्ण को गुण धर्म के आधार पर आठ प्रकार के स्वरूप में बांटा गया है ! इन सब वर्णनों से यह ज्ञात होता है कि उस समय भारत में स्वर्ण उत्पादन का विज्ञान बहुत उच्च स्तर पर था ! जिसे आधुनिक शिक्षा ने विलुप्त कर दिया है !

तथाकथित महात्मा गांधी इस रत्नाकर विद्या पर विश्वास नहीं करते थे ! अतः उन्हें विश्वास दिलाने के लिए गांधी जी के सम्मुख दिनांक 26 मई 1940 को उनके सचिव श्री महादेव देसाई तथा विख्यात व्यवसायी श्री युगल किशोर बिरला की उपस्थिति में मात्र 45 मिनट में वैद्य राज कृष्ण पाल शर्मा जी ने दो सौ तोला सोना बनाकर स्वतंत्रता आन्दोलन हेतु दान दे दिया था !

उस समय वह सोना 75 हजार रुपये में बिका था, जो उससे जो धनराशि प्राप्त हुई थी वह स्वतंत्रता आन्दोलन के लिये दान कर दी गयी थी ! जिसका शिलालेख आज भी दिल्ली के बिरला मंदिर के गेस्ट हाउस में लगा हुआ है ! जहां गांधी को गोली मारी गई थी !

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

 -: सम्पर्क :-
-090 444 14408
-094 530 92553

Share your love
yogeshmishralaw
yogeshmishralaw
Articles: 1766

Newsletter Updates

Enter your email address below and subscribe to our newsletter