भारतीय लोकतन्त्र ही भारत की समस्या है ! Yogesh Mishra

आधुनिक युग मे लोकतन्त्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली माना जाता है ! समस्त विश्व में इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है ! क्यों न हो, इस प्रणाली मे जनता द्वारा जनता के कल्याण के लिए जनता द्वारा शासन किया जाना है ! अर्थात् जनता स्वय अपना शासन चलाती है और अपनी सुखसमृद्धि शान्ति व्यवस्था आदि का प्रबध करती है और इस प्रकार वह किसी निरंकुस राजा या अधिनायक की स्वेच्छाचारिता, निरंकुसता एव आतंक से मुक्त रहती है ! वस्तुत : रामचरितमानस मे जिस व्यवस्था पर आधारित शासन प्रणाली का वर्णन किया गया है, उसकी चरम परिणति है- राम राज्य की स्थापना !

हमारे देश का शासन संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तहत चलाया जाता है, चल रहा है ! लोकतंत्र का मूलाधार है लोकमत अर्थात् जनमत, जनमत अर्थात् जनादेश ! लोकतंत्र और लोकमत की चर्चा चुनाव के समय बहुत होती है ! चुनाव के पूर्व अनुमानों का सिलसिला चलता है और चुनाव के बाद परिणामों के विश्लेषण की होड़ लगती है ! किन्तु इस होड़ और दौड़ में लोकतंत्र और लोकमत की उन मूल प्रवृत्तियों को अनदेखा कर दिया जाता है जो केवल वर्तमान, अतीत और भविष्य का संकेत ही नहीं देतीं, उनका निर्णय भी करती हैं ! लोकतंत्र में ‘ लोक ‘ और ‘ तंत्र ‘ तथा लोकमत में ‘ लोक ‘ (जन) और ‘ मत ‘ का वैशिष्ट्य जाने-विचारे बिना अपनी बातें कह दी जाती हैं !

बात लोकमत की सांख्यिकी गणना और लोकतंत्र की शासकीय प्रक्रिया पर आकर ठिठक या रुक जाती है ! क्योंकि हमने अपने लोकतंत्र का आदर्श इंग्लैंड को माना है, इसलिए हम इंग्लैंड में विकसत इस पद्धति का दुष्परिणाम भी भोग रहे है ! लोकतंत्र का नियमन और नियंत्रण लोकमत से तो होता है लेकिन लोकमत का परिष्कार और संस्कार करने और करते रहने का कार्य भी तो कोई करता होगा या किसी को करना चाहिए कि नहीं ! लोकमत का परिष्कार, लोकसत्ता द्वारा लोकतंत्र का नियमन और निर्देशन करने, उसे लोकहितकारी बनाकर रखने की चिन्ता, चिन्तन और व्यवस्था की बात का महत्त्व शासनतंत्र का संचालन करने की तुलना में इसलिए अधिक है कि इसके अभाव में शासक, शासन-प्रशासन संवेदन-शून्य, कूर, स्वार्थी, पतित और निरंकुश हो सकता है ! ये सभी जनहित के विरुद्ध कार्य का संकेत हैं !

भारत विश्व का एक अति प्राचीन देश और राष्ट्र है ! यहीं सबसे लोकतांत्रिक और गणराज्यीय शासन व्यवस्था का विकास हुआ था ! अथर्ववेद में इसका प्रमाण है ! यहाँ राजा और राजतंत्र को कानून बनाने का अधिकार नहीं था ! उसे केवल धर्मानुसार शासन करने अथवा चलाने का अधिकार था औ वह अधिकार, अधिकार कम, कर्त्तव्य अधिक होता था !

भारतीय परम्परा और पश्चिमी लोकतांत्रिक परम्परा में भी सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले लागों, विशेष रूप में विधायकों और मन्त्रियों के व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग-अलग कर नहीं देखा जाता ! जिस व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन भ्रष्ट है उसका सार्वजनिक जीवन शुद्ध नहीं हो सकता ! इसीलिए ब्रिटेन और अमेरिका में चर्चिल, रुजवेल्ट आदि ऐसे शासकों को, जिनका व्यक्तिगत जीवन अति निर्मल था, विशेष मान दिया गया !

स्वतंत्रता के बाद भारत में भ्रष्टाचार बढ़ने का कारण सेक्युलरवाद के नाम पर अपनाई गई गलत शिक्षा, नीति और धर्म तथा मजहब के सही अर्थों के संबंध में अनभिज्ञता अथवा जानबूझ कर उन्हें गलत करने की नीति है ! किसी भी मजहब को न मानने वाला व्यक्ति भी धर्मात्मा हो सकता है, जबकि धर्म में निहित मूल्यों को अपने जीवन में धारण न करने वाला बड़े से बड़ा मुल्ला, मौलवी, पोप और पुजारी अधार्मिक और भ्रष्ट हो सकता है ! इसलिए भारतीय अथवा हिन्दू राज्यपद्धति के अनुसार राजा का राजतिलक करते समय उसे कहा जाता था कि तू प्रजा का शासक है परन्तु धर्म तुम्हारा शासकधर्म है ! तुम्हें धर्मानुसार आचरण करना होगा ! धर्म का दण्ड तुम्हारे ऊपर रहेगा !

वर्तमान परिस्थितियों को देखकर तो लगता है कि पचास साल में ही हमारा लोकतन्त्र थक गया है ! बुढ़ापे के सारे लक्षण उभरकर आ गए हैं ! सभी अंग ऐसे शिथिल पड़ गए हैं कि उनमें सामान्य उपचार से किसी सुधार की गुंजाइश ही नहीं दिखाई देती ! लोग कहते हैं कि पिछले दशक के दो-तीन साल घोटालों के साल रहे हैं ! साथ ही वे इसे न्यायिक सक्रियता का दौर भी कहने लगे हैं ! दोनों का दरअसल चोली-दामन का संबंध है ! ये सभी घोटाले इन्हीं दो-तीन सालों में नहीं हुए ! पहले से होते रहे हैं ! बिहार का चारा घोटाला हो, लखूभाई का मामला हो या फिर हवाला कांड हो, सभी की जड़ें बरसों पहले ही जमी थीं ! जिस राज्य में जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार कुशासन और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ जोरदार आदोलन चलाया था राजनीति और प्रशासन को स्वच्छ बनाने का संकल्प लिया था वही राज्य भ्रष्टाचार कुशासन और हिंसा का प्रतीक बन गया है !

कुछ आशावादी लोग कहते हैं कि कम से कम अदालतें अपनी भूमिका तो निभा रही हैं ! यही एक संस्था है जिसमे आम जनता की उम्मीद जगी है ! लोगों की इच्छा है कि अदालतें अपनी सक्रियता जारी रखें ! अंग्रेजी का मुहावरा है कि इच्छाएँ अगर घोड़े होते तो विपन्न लोग उनकी सवारी करते ! हवाला कांड को ही लें ! शुरू में लगा था कि अदालतों की फटकार खाकर खुफिया ब्यूरो आनन-फानन में राजनैतिक दिग्गजों को जेल की हवा खिलाएगी ! कुछ आभास तो स्वयं अदालतों ने भी दिया है ! लेकिन दिन क्या अब तो बरस भी गुजर गए लेकिन मामला वहीं का वहीं ! उनमें से बहुत से चुनाव जीतकर फिर आ गए कुछ तो मंत्री भी बने !

हमारी व्यवस्था हवाला काण्ड के कच्चे-पक्के सबूतों को जुटा ही पाई थी कि घोटालों की बाढ़ आ गई ! चारों और फैलने की क्षमता तो उसमें है नहीं, चादर ही इतनी छोटी है कि सिर ढक लें तो पांव नंगे होते हैं पांव ढंकते हैं तो सिर नंगा होता है ! हमारे पास इतने सारे मामलों को तेजी से निपटाने के लिए आदमी ही कहाँ है ! हर राज्य में होने वाली छोटी-बड़ी घटना में खुफिया ब्यूरो द्वारा जांच कराने की मांग की जाती है ! यही प्रवृत्ति एक गंभीर रोग की ओर इशारा करती है ! सभी राज्य अपने यहाँ सभी घटनाओं की जांच केंद्रीय एजेंसी से क्यों कररवाना चाहते हैं? वहाँ की सरकारें चाहती हों या नहीं वहाँ का विपक्ष मांग करता ही रहता है ! क्या जालसाजी, हत्या या दंगा-फसाद की जांच करना राज्यों का दायित्व नहीं है? है तो क्या यह माना जाए कि उनकी जांच एजेंसियां, पुलिस और नौकरशाही इस लायक रही ही नहीं कि वे निष्पक्ष जांच कर सकें? जो हालात हैं उनमें मानना तो यही पड़ेगा ! सभी को चुनाव आयोग से उम्मीद थी लेकिन चुनाव आयोग की सक्रियता का बुलबुला जल्दी ही फूट गया !

दरअसल हमारी इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था के ये दोनों अंग चुनाव आयोग और न्यायालय अपने आप में स्वतन्त्र नहीं हैं ! अदालतें कितनी भी सक्रिय हों उनके फैसलों का दारोमदार उनके सामने रखे गए दस्तावेजों और सबूतों पर होता है ! यह दस्तावेज अदालतें स्वयं नहीं जुटा पातीं ! जिस जनहित याचिका रूपी हथियार का इस्तेमाल पिछले कुछ सालों में काफी बड़े पैमाने पर होने लगा है, उसकी भी अपनी सीमाएँ हैं ! आप शिकायत कर सकते हैं और अपनी शिकायत की द्दृष्टि में कुछ तथ्यों और कुछ संभावित सबूतों के बारे में जानकारी दे सकते हैं ! लेकिन असली जांच तो उसी तंत्र को करनी होगी जो सरकार के हाथ में है ! यह कहना कि खुफिया तंत्र पर सरकार का असर नहीं होगा, अपने आपको धोखे में रखना है !

आखिर खुफिया तंत्र का गठन सरकार ही तो करती है ! उसे कितना बड़ा और कितना सक्षम बनाया जाए यह फैसला भी सरकार ही करेगी ! दो-चार मामलों में भले ही अदालतें सरकारों के हाथ बांध दें, लेकिन यह गलतफहमी पालना कि घोटाले सिर्फ उतने ही हैं जितने प्रकाश में आए हैं सही नहीं होगा ! फिर अदालतों के फैसलों के बाद उन पर अमल कराना अदालतों का काम नहीं है ! उन पर मुस्तैदी से अमल होता है यह जांचने का हमारे पास कोई संस्थागत पैमाना नहीं है ! ज्यादा से ज्यादा इस सक्रियता का इतना ही फायदा या नुकसान हुआ है कि राजनीति के शीर्ष पर बैठे हुए अनेक लोगों और नौकरशाही के मुखियाओं को सार्वजनिक रूप से नंगा करने की सुविधा उपलब्ध हो गई है ! लेकिन इससे क्या होता है? यही ना कि इस हमाम में सभी नंगे हैं ! अगर सभी नंगे हैं तो नंगई का आरोप किस पर लगाया जाए !

राजनैतिक गतिरोध ही दरअसल इस अवस्था के लिए जिम्मेदार है क्योंकि राजनीति हमारे देश में ठहराव की स्थिति में आ गई है ! हमारे राज्यकर्ताओं के भ्रष्टाचार ने देशवासियों को जितनी बड़ी मार लगाई है उसका प्रमाण यही है कि देश मूढ़-सा हो गया है ! संज्ञाशून्य हो गया है ! सुन्न-सा पड़ गया है ! इसे देश के कुछ व्यक्तियों के गैर-कानूनी कार्य ही मानकर छोड़ दिया जाता, न कि राष्ट्र पर आया संकट !

तंत्र में वह शक्ति तथा इच्छा नहीं रही कि अपराधियों से राष्ट्र की सत्ता बच सके ! ऐसे हर प्रसंग में जैसे होता है-जैसा कि बाढ़ में, भूकम्प में, आग में, साम्प्रदायिक दंगों में-कि कोई न कोई शौर्यवान भी अपना जीवट दिखा देता है, वैसे ही राष्ट्र की इस संकट की घड़ी में कोई पुलिस अफसर, कोई सरकारी अफसर, कोई न्यायाधीश भी ऐसे सामने आ गए हैं जिनसे प्रजा में प्राण होने का प्रमाण मिलता है ! लेकिन कुछ वीरों के जीवट भरे प्रसंगों से विभीषिका नहीं रुकती, वैसे ही कुछ ईमानदार और जीवट वाले अफसरों के कारण, या कुछ एक ऐसे नए पदों को बना देने से भ्रष्टाचार का संकट टल जाएगा, यह मानना हास्यास्पद है !

‘ लोकपाल ‘ इत्यादि पर होती बहस ऐसे ही लोगों को बहला सकती है जो आज भी मध्ययुगीन यूरोप में जीते हैं और सोचते हैं कि जैसे उन तीन तिलंगों ने फ्रांस के राज्य का संकट टाल दिया था वैसे ही कुछ कानूनची ‘ मस्केटियर्स ‘-तिलंगे-भारत के राज्य को भ्रष्टाचार से बचा लेंगे ! लेकिन मूल बात तो यह है कि हमारी स्थिति रक्षक के कमजोर हो जाने की नहीं है ! ऐसा हो तो उसके हाथों को मजबूत करने के लिए उपाय ही उचित होते हैं, वही करने भी चाहिए ! उसके हाथ में अधिक कारगर हथियार भी दिए जा सकते हैं तथा उसके हाथ उन्हें थाम सकें, इसलिए उसे अधिक पोषण भी दिया जा सकता है ! लेकिन अगर रक्षक ही भक्षक बन जायें क्या तब भी उसके हाथ में ताकतवर हथियार देंगे? इस राज्यतंत्र में एक और सुपर-सत्तधारी पैदा करेंगे !

राज्यतंत्र के भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर तीन मान्यताएं हो सकती हैं ! एक-राज्यतंत्र में दोष नहीं है, वह निर्दोष है; दो-राज्यतंत्र में कुछ अपराधी भ्रष्टाचारी व्यक्ति आ गए हैं, कुछ कानून, कुछ व्यवस्थापकीय सुधार करने से ईमानदार ,देशभक्त लोगों के लिए राज्यकर्ता बनना सरल हो जाएगा और तीन-केवल भ्रष्टाचारी-अपराधी ही राज्यतंत्र में आ सकता है ! अभी जो हो रहा है वह केवल शुरुआत है ! अब तक जो था वह इसकी पूर्व तैयारी थी !

राज्य किस प्रकार के किस चरित्र के लोगों के हाथों में रहेगा यह इससे निर्धारित होता है कि उस विशेष समय में राज्य किन शक्तियों के संयोजन से बना हैं-राज्य की धारक शक्ति कौन-सी है ! विभिन्न सत्ताओं में से कौन-सी सत्ता है जो प्रभुसत्ता बनी हुई है ! इन सत्ताओं का आपसी सम्बन्ध क्या है, किसका कितना प्रभुत्व या गुरुत्व है, किसका कितना क्षय या विनिपात है !

आधुनिक सभ्यता का मर्म ही यह है कि वह वित्त को, आर्थिक सत्ता को ही प्रभुसत्ता के रूप में स्थापित-प्रतिष्ठित करके उसी सत्ता के अनुकूल राज्यतंत्र का निर्माण करती है ! यही आधुनिक राज्य का, आधुनिक सभ्यता का, हमारी मौजूदा संस्कृति का अर्थ है तथा यहीं पर वह, जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसके मूल में ही अंतर करके खड़ी है ! आधुनिक सभ्यता तथा उसके राज्य को गांधी जी ने इसीलिए आसुरी कहा कि वह केवल अर्थ प्रधान, वित्त प्रधान है-वित्त की सत्ता सर्वोपरि है, पैसा ही प्रभु है !

ऐसा क्यों है! तथा इससे भिन्न क्या हो सकता है, सूत्रात्मक रूप से इतना भर कहना जरूरी है कि ‘ धर्म निरपेक्ष ‘ राज्य का भारत में यही अर्थ है और ‘ रेशनलिस्ट- साइंटिफिक – सेक्यूलर ’ राज्य-दर्शन अर्थात् मूलभूत रूप से पाश्चात्य या आधुनिक संस्कृति के दर्शन का भी यही तात्पर्य है ! राष्ट्र पर आया राज्यतंत्र के अपराधीकरण या भ्रष्टाचार का संकट वास्तव में आधुनिक संस्कृति की सेवा में खड़े किए गए हैं ! राज्यतंत्र से भारत के लोगों को अनुकूल करने की प्रक्रिया है ! इस राज्य को जिस प्रकार का राज्य संचालक वर्ग चाहिए उसे खड़ा करने की, उसे अपनी भूमिका निभाने में सक्षम बनाने की यह प्रक्रिया है !

वित्त की सत्ता का प्रभुसत्ता होने का अर्थ है-पाश्चात्य देशों की सत्ता की सर्वोपरिता को स्वीकार, उनकी सेवकाई ! यह नहीं भूलना चाहिए कि उदारीकरण के नाम पर बाजार के वैश्वीकरण के साथ ही भ्रष्ट और अपराधी व्यक्तियों की सत्ता और शक्ति में जबरदस्त वृद्धि हुई है ! पूरा तंत्र इन शक्तियों के ही प्रभाव में चलने लगा है-उनके मोहरे कोई भी हों ! मोहरों की लड़ाई में लोगों का ध्यान लगा कर ये शक्तियां अपना-अपना काम तो कर ही रही हैं !

पश्चिमी वित्तीय और आर्थिक सत्ता के साथ भारत जिस प्रकार के सौदों से बँधा जा रहा है, वह क्या कम बड़ा अपराध है, राष्ट्र के साथ? यह बहुत सम्भव है कि कल इस देश की रक्षा के लिए लड़ने हेतु शौर्यवान लोग ही इस देश में न रहें और अगर होंगे तो वे किस प्रेरणा से ऐसे राज्यकर्ता समूह के आदेश पर देश के लिए प्राण न्यौछावर करेंगे? क्या यह चिन्ता का विषय नहीं कि भारतीय वायुसेना को छोड़कर विदेशी प्रवासी वायुसेना में हमारे नौजवान जाने लगे हैं? इन्हें एक लाख की या पचास हजार की नौकरी के बदले वायुसेना या थलसेना में रहने के लिए कौन प्रेरणा दे सकते हैं?

राज्यकर्ता का यह क्षय आधुनिक सम्यता में वित्त ही सर्वोपरि प्रेरणा होने का परिणाम है और उसी को सर्वसत्ताधीश के स्थान पर बैठ कर राज्य का एकमात्र उद्देश्य उसकी सेवा करने में है ! इस संदर्भ में ‘ विकास ‘ की आधुनिक व्याख्या तथा दिशा भी यही है, इसे हमें समझना पड़ेगा ! क्यों ‘ विकास ‘का अर्थ केवल भौतिक सुख-सुविधा बढ़ाना ही है? क्यों इस अवधारणा में मनुष्य की व्याख्या भोग लक्षी है? उसके जीवन का उद्देश्य अबाधित भोग-विलास है? मनुष्य क्या केवल शरीर ही है, इन्द्रियसुख ही मनुष्य का जीवन है? लेकिन जब हम राज्य और धर्म, राजनीति और धर्म की बात उठाते हैं तो उसे तोड़-मरोड़ कर हिन्दू-मुस्लिम पर ला दिया जाता है, साम्प्रदायिक बना दिया जाता है ! यह प्रश्न तक नहीं उठाया जाता कि राज्य का धर्म क्या है, राज्यकर्ता का धर्म क्या है विकास ‘ का धर्म क्या है !

भ्रष्टाचार और अपराध के ही बल पर राज्य सत्ता की प्राप्ति जिस राज्य में सम्भव बनती है, उसके मूल में ही पड़े दोष को देखे बिना और सुधारे बिना किए गए अन्य उपायों का अपना औचित्य नहीं होगा ,ऐसा नहीं मानना चाहिए ! लेकिन ऐसे उपायों के परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार, अर्थात् राज्यकर्ता वर्ग द्वारा चलाई जाती लूट का रूप और रास्ता बदलेगा ! आधुनिक विकासवाद में शक्तिशाली को लूट की न केवल छूट है, इस लूट को ‘ ग्रोथ ‘ यानी अर्थतंत्र का, वित्तीय सत्ता का विस्तार कहा जाता है !

यदि समय रहते भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगाई गई, तो न केवल लोकतंत्र अपितु देश की एकता और सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी ! इसलिए देश के मनीषियों और राष्ट्र हितैषियों को भ्रष्टाचार की जड़ में जाना चाहिए, उसके विभिन्न आयामों को समझना चाहिए और इसे खत्म करने के लिए दलगत भावना से ऊपर उठकर समन्वित पग उठाने के लिए जमीन तैयार करनी चाहिए ! सबसे पहली आवश्यकता राजनीति में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला खत्म करने की है ! जब तक देश का प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राजनेता भ्रष्टाचार के घेरे में रहेंगे कोई प्रयत्न सफल नहीं होगा !

अभी सभी लोग मानने लगे हैं कि यदि देश के पहले प्रधानमंत्री सरदार पटेल होते तो स्थिति सर्वथा भिन्न होती, परन्तु जो बीत गया उस पर रोने से कुछ बनेगा नहीं ! देश में आज भी अच्छे और भले व्यक्ति हैं, परन्तु भ्रष्ट राजनेताओं ने उन्हे राजनीति से खदेड़ रखा है या हाशिए पर कर रखा है ! फलस्वरूप अच्छे लोग राजनीति में आने से घबराने लगे हैं ! यह स्थिति बदलनी होगी ! अच्छे लोगों को आगे लाने का प्रयत्न होना चाहिए ! राजनीति को कोसने से काम नहीं चलेगा ! शासन तो राजनीति के द्वारा ही चलेगा ! इसलिए राजनीति को शुद्ध करना होगा, इसमें अच्छे लोग आगे लाने होंगे !

यदि देश के मतदाता यह मन बना लें कि किसी भ्रष्टाचारी, अपराधी, शराबी और व्यभिचारी को या किसी ऐसे व्यक्ति को जिस पर हत्या के मामले में सन्देह की उँगली उठती है, जीतने नहीं दिया जाएगा और प्रत्याशियों के व्यक्तिगत जीवन की भी छानबीन की जाएगी तो चुनाव के बाद देश की राजनीति को कुछ हद तक शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा इसका प्रभाव सब पर पड़ेगा ! साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में नैतिक शिक्षा को महत्व देने, आर्थिक नीतियों को राष्ट्र की परम्पराओं, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने और जन-जन के मानस के भारतीयकरण करने के लिए अभियान चलाने की आावश्यकता है !

अत: चुनावों में सदाचार और सदाचारी लोगों को प्रमुखता देने की ओर भी ध्यान देना होगा ! यह सन्तोष का विषय है कि इस दिशा में कुछ मनीषियों और सन्तों ने सोचना शुरू किया है ! इस सोच को भ्रष्टाचार के विरुद्ध और सदाचार के पक्ष में जनजागरण अभियान का ठोस रूप दिया जाना चाहिए ! तभी भारत बचेगा !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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